31.5.13

कल्पना - स्त्री-विहीन गांव की.


           प्रसूता दर्द से कराह रही है और दाई सहित दो-चार बडी-बूढी औरतें जचगी करवाने में जुटी हैं, कमरे के बाहर स्त्री का पति अपने परिचितों के साथ परेशानहाल बैठा है और परिचित दिलासा दे रहे हैं कि सब ठीक होगा । नवजात शिशु के रोने की आवाज आती है और प्रसूता का पति प्रसन्नता में चम्मच से थाली बजाने लगता है तभी दाई आकर खबर देती है, लडकी...!  थाली बजना बंद, दूध का टब भरवाया जाता है और अगले साल लडके की आस में गांव के लोगों की मौजूदगी में उस नवजात लडकी को दूध के टब में डूबोकर मार दिया जाता है ।

        प्रचलित प्रथा के चलते गांव में लडकियों का अकाल पड जाता है और तीस-चालीस वर्षीय कुंवारों की ऐसी फौज खडी हो जाती है जो आस-पास के गांवों में लाख-दो लाख रु. नगद देकर भी विवाह के लिये लडकियां लाने की कोशिश करते हैं पर वहाँ भी लडकियां नहीं मिलती । उन कुंवारे लडकों की मानसिक भूख का दोहन करने और उनके मनोरंजन के प्रयास में नाटक मंडली वाले भी चिकने-चुपडे लडके से ही मेकअप करवाकर धोखे से उनसे ही लडकियों के उत्तेजक नृत्य करवाकर अपना धंधा चलाते हैं और गांव में ही एक व्यापारी उनके मनोरंजन के लिये ब्ल्यू फिल्मों के सार्वजनिक शो अपने घर के टी.वी. पर दिखा-दिखाकर पैसे बनाता है । उत्तेजना की अधिकता में गांव के मुखिया का बडा लडका चलती ब्ल्यू फिल्म के दौरान ही सबकी नजर बचाकर गौशाला में बंधी गाय के पास ही अपनी भडास निकालने पहुँच जाता है और बेचारी बंधी हुई गाय... रंभाती ही रह जाती है ।

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      विधुर मुखिया के पांच में से बडे चार लडके हर समय अपने पिता से शिकायत करते दिखते हैं कि कभी हमारी शादी भी करवाओगे कि नहीं, परेशानहाल पिता 'पंडित लडकी ढूंढ तो रहा है' कहते हुए अपनी पीडा व्यक्त करते दिखता है और पंडित, वह खुद भी तो स्त्री शरीर का भूखा ही रहता है । तभी बडे लडके का दोस्त उसे यह बताते हुए खुशखबरी देता है कि परसों मेरी शादी हो रही है, गांव में पिछले 15 वर्षों में यह पहली शादी है, मेरे पिता ने मेरे लिये 14 वर्ष की अप्सरा तलाशी है और तुम्हें शादी में अवश्य आना है । शादी में जिस लडकी की उम्र उसका होने वाला पति 14 वर्ष बताता है वह 9-10 वर्ष की होती है जिसके पिता ने दो-लाख रुपये नगद लेकर अपनी मासूम लडकी अधेड युवक के हाथों सौंपी होती है और फेरों के दौरान पंडित स्वयं आपा खोकर स्त्री का नग्न शरीर देखने की लालसा में उसका लंहगा तक खींच देता है जिससे पल-दो पल के लिये शादी में शामिल सभी ग्रामीणों को आधा-अधूरा नयनसुख हासिल हो जाता है ।

         
एक दिन अचानक उस पंडित को यौवनभार से लदी एक जवान और खूबसूरत लडकी जंगल के एकान्त में बैर खाते व गुनगुनाते दिख जाती है, लडकी पंडित को देखकर दौड लगाते हुए अपने घर की ओर भाग लेती है और पीछे-पीछे भागकर पंडित उस लडकी के ऐसे घर तक पहुँच जाता है जिसके मुख्य द्वार पर ताला और चहारदीवारी पर निसरनी (सीढी) लगी रहती है, लडकी सीढियां चढकर अपने घर में कूद जाती है और पंडित भी दरवाजा खटखटाने के बाद उसी सीढी पर चढकर लडकी के गरीब पिता से यह पूछते हुए कि ऐसे लडकी को छुपाकर क्यों रख रखा है, लडकी का पिता कहता है छुपाकर नहीं रखता तो गांव के लोग इसे भी कभी का मरवा देते । अब तो मैं इसके लिये किसी योग्य वर की तलाथ में हूँ । 

      पंडित उस गरीब को एक लाख रु. नगद दिलवाने के वादे के साथ बहुत अच्छे खानदान के बहुत योग्य लडके से शादी करवाने का आश्वासन देते हुए उसका विश्वास जीतकर गांव के मुखिया के पास आता है और मुखिया अपने सबसे छोटे बेटे से गाडी चलवाते हुए पंडित के साथ उसी समय उस लडकी के पिता से मिलता है जहाँ मुखिया के बडे लडके का फोटो देखकर लडकी का पिता रुपये के आश्वासन के बावजूद यह कहते उसके प्रस्ताव में रुचि नहीं लेता कि यदि वो चाहे तो उसके छोटे बेटे के साथ वो यह शादी कर सकता है । 

          परेशान हाल वापसी में मुखिया के दिमाग में एक विचार कौंधता है और उस गरीब व्यक्ति के समक्ष नगद पांच लाख रुपये रखकर उसकी इकलौती लडकी का विवाह अपने पांचों बेटों के साथ एक ही बेदी और मुर्हत में करवा देता है । अब मुखिया के घर में बेटों के साथ पिता की मौजूदगी में बडा बेटा यह गणित बैठाता दिखता है कि बडा होने के नाते फीता तो मैं ही काटूंगा और बाकि के दिन बारी-बारी से चारों भाईयों का नम्बर लगने पर भी जो दो दिन बच रहे हैं उसका बंटवारा कैसे करें । 

      तब औरत मिलने की खुशी में झूमता उसका छोटा भाई दरियादिली दिखाने की शैली में बडे से कहता है कि भैया ये दो दिन भी आप ही ले लो । यह सब सुनकर मुखिया पिता का दिमाग भन्नाने लगता है, वह अपने बेटों से कहता है - नालायकों कुछ मेरे बारे में भी तो सोचो । तुम्हारी माँ को मरें 20 साल हो गये तबसे मैं ही तुम्हें माँ और बाप दोनों के स्थान पर पाल रहा हूँ और आज भी नगद पांच लाख रुपये देकर मैं ही इस लडकी को तुम्हारे लिये घर में लाया हूँ । पिता की ईच्छा समझ बेटे स्वीकृति दे देते हैं और यौवनभार से लदी उस अनछुई बहू के साथ आधी-अधूरी शरीर क्षमता वाला बूढा मुखिया स्वयं फीता काटने का गौरव हासिल करने सुहागरात का श्रीगणेश  खुद ही कर डालता है । 

         
असहाय लडकी आंसू बहाती रहती है और हर नये दिन नया पुरुष मुखिया के बेटे के रुप में उसे नोचने-खसोटने पहुँचते रहते हैं । दूध दुहने और पानी खिंचने जैसे काम जिसकी उस लडकी को कभी आदत ही नहीं होती वे भी उसके जिम्मे डाल दिये जाते हैं, जहाँ मानवीय संवेदनाओं के साथ मुखिया का छोटा बेटा उसकी मदद करता है । कुछ तो मुखिया के उस छोटे पुत्र का लडकी के दुःखों के प्रति करुणा का भाव और कुछ हमउम्र होने का मानवीय लगाव, जिसके चलते दिन में जब वे अक्सर साथ में दिखने लगते हैं तो मुखिया पिता सहित शेष चारों भाई षडयंत्रपूर्वक उस छोटे पुत्र की भी हत्या करवाकर उसे भी राह से हटा देते हैं । 

      दुःखियारी लडकी अपने घर के दलित समाज के छोटी उम्र के नौकर के द्वारा इनके जुल्मों की दास्तान पत्र में लिखकर न्याय की आस में अपने पिता के पास पहुँचाती है तो लडकी का पिता जो अब गरीब नहीं रहा, कार में बैठकर मोबाईल हाथ में ले इन्हें धमकाने आता है और अपनी लडकी के शरीर में मुखिया की हिस्सेदारी के मुआवजे के रुप में और एक लाख रुपये नगद लेकर अपनी ही लडकी को दिलासा देते हुए वापस चला जाता है ।  
  
          अपने पिता से शिकायत के दंडस्वरुप मुखिया का परिवार जब उस लडकी पर और अधिक जुल्म करने लगता हैं तो बचाव में लडकी उसी छोटी उम्र के दलित समाज के नौकर के साथ मुखिया के घर से भाग जाती है । मुखिया के बेटे उन्हें ढूंढकर उस दलित नौकर की भी हत्या कर देते हैं और लडकी को दंडस्वरुप मुखिया के आदेश से गाय जैसा रस्सीयों से बांधकर बाडे में जानवरों के साथ पटक देते हैं जहाँ मुखिया के घर का नया नौकर उस लडकी को चोरी-छिपे दूध पिलाकर उसकी जान बचवाता है ।

     इधर मुखिया तो लडकी को अपवित्र हुआ मानकर उसका पीछा छोड देता है किन्तु उसके बेटों के साथ ही गांव के दलित समाज का नेता भी अपने साथी को साथ ले मुखिया के प्रति अपने समाज के लोगों को भडकाने के साथ-साथ चोरी-छिपे इस लडकी का दैहिक शोषण करने लगातार आने लगता है । बाडे में जानवरों के साथ बंधी लडकी जब गर्भवती हो जाती है तो यह खबर जानकर उसकी होने वाली सन्तान (पुत्र) का गौरव हासिल करने का श्रेय बडे बेटे को यह कहते हुए झिडककर की पहली रात तो मैं ही उसके साथ था इसलिये होने वाले इस बच्चे का बाप भी मैं ही हूँ, उस लडकी को बाडे से निकालकर मुखिया फिर से घर में ले आता है जबकि दलित समाज का नेता होने वाले उस बच्चे पर अपना अधिकार मानते हुए दलित समाज की पूरी भीड को लेकर मुखिया के घर धावा बोल देता है । मुखिया क्रोध में उस लडकी पर घासलेट डालकर उसे जलाने लगता है तो उस लडकी के बचाव में मुखिया का घरेलू नौकर मुखिया की हत्या कर देता है ।

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      मुखिया के बेटे अपने जुल्मों के कारण दलित समाज की आक्रोशित भीड के हाथों मारे जाते हैं और गर्भवती लडकी पुनः लडकी को ही जन्म देती है । रोचक व प्रेरणास्पद प्रसंगों से जुडी ऐसी ही पोस्ट कच्ची उम्र के ये शरीर सम्बन्ध  भी यहां क्लिक करके अवश्य देखें ।

          निःसंदेह यह एक काल्पनिक कहानी है जिसे बोनी कपूर व श्रीदेवी ने राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के लिये टेलीफिल्म के रुप में "मातृभूमि" नाम से रोचक शैली में  फिल्मांकित किया है, किन्तु देश के अनेक राज्यों में जहाँ लडकों के समक्ष लडकियों के जन्म का अनुपात 1000 पर 800/850 के मध्य रह जाने मात्र से कुंआरे युवकों की भीड बढती चली जा रही है, वहीं यदि लडकियों को जन्म लेने से इसी प्रकार रोका जाता रहा तो स्थिति और कितनी विकट होगी ?

25.5.13

चमत्कार ! दादाजी के आगमन का...



          यह हमारे ससुराल में हर पूर्णिमा के दिन सुबह 10 बजे के आसपास करीब-करीब एक घंटे के लिये आकर दर्शन देने वाले हमारे दादाजी की छवि है और उनके साथ सशरीर चित्र मेरे उन साले साहब श्री राजेश पाटोदी का है जिनका शरीर उस समय आदरणीय दादाजी के आगमन का माध्यम बनता है । सामान्य बोलचाल में दादाजी के जीवन का कालखंड लगभग 200 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जा सकता है और लगभग सात पीढी पूर्व का इनका इन्सानी अस्तित्व श्री जगन्नाथजी चौधरी के नाम से सामने आता है । जाति से जैन होने के बावजूद चौधरी सरनेम का उच्चारण इसलिये कि उस समय इन्हें इनके सम्बन्धित गांव में यह उपाधि प्राप्त थी ।

          इस अवधि में श्री राजेश पाटोदी के घर के आसपास के अधिकांश दुःखीजन इनके पास अपनी समस्या निवारण के लिये आते हैं और दादाजी भी बगैर किसी भेदभाव के उनकी समस्या के निवारण के वे उपाय बताते हैं जो हमारी भाषा में एक से बढकर एक नायाब टोटकों के रुप में ही होते हैं और उनके द्वारा बताये गये समस्या-समाधान के तरीके क्रियान्वय के पश्चात् 90% से भी अधिक सफल होते भी हैं । यदि किसी विशेष मसले पर उपाय के बाद भी समस्या का व्यवस्थित निदान नहीं हो पावे तो पूरी निश्छलता और निर्मलता से वे यह स्वीकार करते हुए कि मैं कोई भगवान नहीं हूँ उन्हें बदलकर उपाय करने की राह भी सुझाते हैं । आधुनिक तार्किक युग में रहने वाला मैं भी पिछले पांच वर्षों से भी अधिक समय से इनके आगमन का साक्षी रहा हूँ और मैंने स्वयं भी अपनी पत्नी व बच्चों के साथ अपनी कई समस्याएँ इनसे साझा कर उनके बताये उपाय जाने और किये हैं । उनके आगमन की इस अवधि में श्री राजेश पाटोदी के मुख से निकलने वाली शब्दों की शैली स्वतः पुराने जमाने में चलन में बने रहने वाले शब्दों में परिवर्तित हो जाती है और मेरे देखते-देखते इनके सम्मुख कई ज्ञानी पंडित, ज्योतिष, संत, साध्वी, शरीर में देवी को धारण करने वाले अनेकों लोग आकर गये किन्तु आज तक ऐसा कोई व्यक्ति मेरे सामने नहीं आ पाया है जो इनके सम्पर्क में आने के पश्चात् इस मानसिकता के साथ वहाँ से निकला हो कि ये सब सिर्फ ढोंग-ढकोसला या किसी प्रचार के तहत चलने वाली कोई दिखावी प्रक्रिया है । 

          लोग इनसे अपने स्वयं के व अपने परिजनों के विवाह मार्ग में आने वाली बाधा, लाईलाज बीमारियों से संबंधित शरीर स्वास्थ्य की समस्याओं के समाधान, व्यापारिक उन्नति या किसी भी प्रकार की बाधाओं से मुक्ति के उपाय समझते हैं । ये आपके भले के कितने भी उपाय बता  दें किन्तु आपके द्वारा किसी का बुरा चाहने वाला कोई उपाय नहीं बताते । ऐसी किसी भी शंकित जगह इनका स्पष्ट उत्तर होता है कि "नाना/नानी तू यदि सही है तो थारो काम हो जाएगो ।" इस दिन इनके आदेशानुसार श्री राजेश पाटोदी के घर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भोजन करके ही वहाँ से वापसी का उनका प्रबल आग्रह रहता है, भोजन में सिर्फ दाल-बाटी ही बनती मिलती है और इस दिन इनके घर में आग पर तवा नहीं चढाया जाता इसलिये रोटी नहीं बनती ।

          यहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से इनका दो पैसे का भी कोई लालच नहीं होता, बल्कि सभी के लिये यह आदेश सा रहता है कि कोई भी उपहार, रुपये-पैसे, फल-फूल जैसी सामग्री लाना ले जाना वर्जित है । किन्तु फिर भी इनके कुछ चाहने वाले इस दिन इनके यहाँ श्रीफल व अगरबत्ती तो ले ही आते हैं । बावजूद इसके कि इनके घर में दादाजी के हर पूर्णिमा के दिन आगमन का इतिहास पिछले करीब आठ वर्षों से तो अनवरत जारी है जिसमें पांच वर्षों से इनके इस आगमन के प्रत्यक्षदर्शियों में मैं भी शामिल रहा हूँ आज न जाने क्यों इनका परिचय अपने इस ब्लाग पर आप सभीके साथ शेअर करने की इसलिये ईच्छा हो गई कि यहाँ तो एक से बढकर एक तार्किक और नास्तिक मौजूद हैं जो ऐसी किसी भी स्थिति के अस्तित्व को सिरे से ही खारिज कर देने की सोच के साथ ही जिन्दगी जी रहे होते हैं, किन्तु है ये अकाट्य सत्य जिसका अनुभव कोई भी शख्स किसी भी पूर्णिमा के दिन इनके सामने उपस्थित होकर स्वयं कर सकता है । इस अवधि में इनके आदेश के बगैर कोई इन्हें छू भी नहीं सकता किन्तु यदि कोई अपरिचित इनके सम्मुख अपनी कोई शंका-समस्या निवारण के लिये आता है तो ये उससे उसके हाथ धुलवाकर दोनों हाथ अपने घुटनों से नीचे रखवाकर अपनी दिव्य-दृष्टि से उसका सम्पूर्ण परिचय स्वयं कर लेते हैं और फिर यदि वो विदेश में भी कहीं रह रहा हो तब भी उसके घर में कहाँ क्या अनियमितता चल रही है जो समस्या का कारण बन रही है उसके बारे में सप्रमाण विश्वासपूर्वक बता देते हैं और इनके द्वारा बताये जाने वाले उस कारण को कोई भी नकार नहीं पाता है ।

आदरणीय दादाजी की जय हो...

12.5.13

मात्र दिवस विशेष - माँ तुझे सलाम...!


उसको नहीं देखा हमने कभी पर इसकी जरुरत क्या होगी ? 
ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की मूरत क्या होगी ?



माँ ही मन्दिर, माँ ही मूरत, माँ पूजा की थाली, 
बिन माँ के जीवन ऐसा, जैसे बगिया बिन माली ।


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माँ ने कभी हमें खुली छत के नीचे नहीं सुलाया 
और कुछ नहीं मिला तो छाँह के लिये अपनी ममता का आँचल ही 
हम पर ओढा दिया ।

माँ ब्रह्मा है, माँ विष्णु है और महादेव भी माँ ही है । 
ब्रह्मा जन्म देते हैं, विष्णु पालन करते हैं और महादेव उद्धार करते हैं । 
जो तीनों देवों का कार्य अकेली पूरा करती है, 
धरती पर वही माँ कहलाती है 

 





दुनिया में माँ की कीमत क्या होती है 
ये उससे बेहतर कौन बता सकता है 
जिसकी माँ दुनिया में नहीं रही ।


  

माँ जब हमारे पास रहती है 
तो अपने प्रेम का खजाना हम पर लुटाती है 
और जब दूर होती है 
तो अपनी दुआओं की दौलत से हमें धन्य करती है ।






कबूतरों को दाना डालना, वृद्धाश्रम में दान देना 

और देवी के मंदिर में चुनरी चढाना अच्छी बात है 

पर जन्म देने वाली माँ को भोजन, वस्त्र और हाथखर्ची देने से 

मुँह मोड लेना दया-दान-पूजा का अपमान है ।





 पत्नी हमारी पसंद है और माँ हमारा पुण्य, 

हम ऐसा कोई कार्य न करें जिससे पसन्द के आगे 

पुण्य का दम घुटने लगे ।





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है कौनसी वो चीज जो यहाँ नहीं मिलती, 

सबकुछ मिल जाता है लेकिन हां माँ नहीं मिलती ।




 
माँ-पिता की सेवा का मतलब सिर्फ उनके हाथ-पांव दबाना नहीं 

बल्कि उनकी बतों का पालन करना और 

उनकी उम्मीदों पर खरे उतरना ही उनकी सच्ची सेवा है ।
 




मात्र-दिवस के शुभदिन 
आप सभीको  हर्दिक शुभकामनाएँ...


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